आप निचे सुंदरकांड पाठ हिंदी में PDF डाउनलोड कर सकते है जो खाश हमने आपके लिए तैयार किया है। इसके साथ ही हमने sunderkand lyrics in hindi भी निचे लिख दिया है। सुंदरकांड पाठ हिंदी में अर्थ सहित भी इस आर्टिकल में दिया गया है। सुन्दरकाण्ड का पाठ कैसे करें इस बारे में भी निचे बताया गया है।
Sunderkand pdf download
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सुंदरकांड पाठ
सुंदरकांड रामचरितमानस का एक प्रमुख कांड है, जिसे गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा था। सुंदरकांड, जिसका नाम ‘सुंदर’ यानी खूबसूरत और ‘कांड’ यानी अध्याय से मिलकर बना है, रामायण के सबसे रोमांचक और प्रेरणादायक खंडों में से एक है। इस खंड में हनुमान जी की अद्भुत यात्रा और सीता माता की खोज की गाथा है। sunderkand pdf में हमने ये पुरे विस्तार से लिखा है।
हनुमान जी की यात्रा
सुंदरकांड में हनुमान जी की लंका यात्रा का वर्णन है, जहाँ वे सीता माता की खोज में जाते हैं। उनकी यात्रा अनेक चुनौतियों और बाधाओं से भरी हुई है, लेकिन उनकी अदम्य भक्ति और शक्ति उन्हें सफलता दिलाती है।
सीता माता की खोज
हनुमान जी लंका पहुँचकर सीता माता को आशोक वाटिका में पाते हैं। वहाँ उन्होंने सीता माता को श्री राम का संदेश दिया और उन्हें आश्वासन दिया कि श्री राम जल्द ही उन्हें लंका से मुक्त कराएंगे।
श्री राम की भक्ति
सुंदरकांड हनुमान जी की श्री राम के प्रति अटूट भक्ति को दर्शाता है। उनकी भक्ति और समर्पण इस खंड की मुख्य विशेषता है और यह भक्तों को भी श्री राम की भक्ति की ओर प्रेरित करता है।
आध्यात्मिक महत्व
सुंदरकांड का पाठ भक्तों द्वारा आध्यात्मिक शक्ति और शांति प्राप्त करने के लिए किया जाता है। इसका पाठ करने से मन को शांति मिलती है और जीवन की कठिनाइयों से मुक्ति मिलती है।
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सुंदरकांड पाठ के लाभ
सुंदरकांड, रामचरितमानस का एक अत्यंत महत्वपूर्ण खंड है, जिसे गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है। यह हनुमानजी की भक्ति और शक्ति का प्रतीक है और इसमें उनके द्वारा लंका दहन की घटना का वर्णन है। सुंदरकांड पाठ करने से अनेक लाभ होते हैं, जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं। sunderkand pdf का डाउनलोड लिंक बिलकुल निचे दिया गया गया है उसे डाउनलोड करें पाठ के लिए।
1. मानसिक शांति: सुंदरकांड का पाठ करने से मन को शांति मिलती है और चिंताएं दूर होती हैं।
2. आत्मबल में वृद्धि: हनुमानजी की अद्भुत शक्ति का स्मरण करते हुए पाठ करने से आत्मबल में वृद्धि होती है।
3. बाधाओं का निवारण: यह पाठ जीवन की बाधाओं को दूर करने में सहायक होता है और सफलता की ओर ले जाता है।
4. सकारात्मक ऊर्जा: सुंदरकांड के पाठ से घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
5. भक्ति भावना की वृद्धि: इस पाठ को करने से भक्ति भावना में वृद्धि होती है और ईश्वर के प्रति समर्पण बढ़ता है।
सुंदरकांड पाठ करने का एक विशेष महत्व यह भी है कि यह हनुमानजी की कृपा को आकर्षित करता है, जो कि सभी प्रकार के कष्टों से मुक्ति दिलाने में सक्षम हैं। इसलिए, अनेक लोग विशेष अवसरों पर या संकट के समय में सुंदरकांड का पाठ करते हैं।
सुंदरकांड पाठ के ये लाभ न केवल व्यक्तिगत जीवन में बल्कि सामाजिक जीवन में भी सकारात्मक प्रभाव डालते हैं। इसके पाठ से जुड़ी आस्था और श्रद्धा व्यक्ति को आंतरिक रूप से मजबूत बनाती है और जीवन के प्रति एक नई दृष्टि प्रदान करती है।
सुंदरकांड पाठ की शुरुआत करने की विधि
- स्नान और स्वच्छ वस्त्र: पाठ करने से पहले स्नान करके स्वच्छ वस्त्र पहनें।
- पूजा: हनुमानजी और श्री राम की फोटो या प्रतिमा पर पुष्पमाला चढ़ाकर दीप जलाएं और भोग में गुड़, चने या लड्डू का भोग अर्पित करें।
- गणेश पूजा: पाठ शुरू करने से पहले श्री गणेश की पूजा करें, फिर अपने गुरु, पितरों की और फिर श्री राम की वंदना करके पाठ शुरू करें।
- ध्यान: पूरा मन और ध्यान पाठ में लगाएं।
- आरती: पाठ के समापन के बाद श्री हनुमान जी की आरती और श्री राम जी की आरती करें और पाठ में भाग लेने वालों को आरती और प्रसाद दें।
- आवाहन और विदाई: पाठ शुरू करने से पहले हनुमानजी और रामचंद्र जी का आवाहन करें और समापन पर भगवान को भोग लगाकर, आरती करके और उनकी विदाई दें।
- सुरक्षा: पाठ के बाद सुंदरकांड को लाल कपड़े में लपेटकर पूजा स्थान पर रख दें।
- sunderkand pdf को डाउनलोड करना जरुरी है तभी आप पाठ कर पाएंगे।
Sunderkand का पाठ करने का सही समय सुबह होता है और इसे 12 बजे से पहले पूरा कर लेना चाहिए। मंगलवार और शनिवार के दिन पाठ करना विशेष रूप से शुभ माना जाता है.
पूरी विधि यहाँ पढ़ें – सुंदरकांड पाठ की विधि
स्वस्तिवाचन मंत्र यहाँ पढ़ें।
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सुंदरकाण्ड का पाठ करने के चमत्कारिक फायदे
चलिए अब हम सुंदरकांड के कुछ चमत्कारिक फायदों को समझ लेते है। इससे आपको पता चल जायेगा की आखिर सुंदरकांड का पाठ हमें क्यों करना चाहिए।
स्वास्थ्य लाभ
मानसिक शांति
सुंदरकाण्ड का पाठ करने से मानसिक शांति मिलती है। यह मन की अशांति और तनाव को दूर करता है और व्यक्ति को सुकून प्रदान करता है।
तनाव मुक्ति
नियमित सुंदरकाण्ड का पाठ करने से मानसिक तनाव कम होता है और व्यक्ति को चिंता और अवसाद से मुक्ति मिलती है।
एकाग्रता में सुधार
सुंदरकाण्ड का पाठ मन को एकाग्र करने में सहायक है। इससे मानसिक स्पष्टता बढ़ती है और एकाग्रता में सुधार होता है।
अध्यात्मिक लाभ
भक्ति और श्रद्धा में वृद्धि
सुंदरकाण्ड का पाठ करने से व्यक्ति की भक्ति और श्रद्धा में वृद्धि होती है। भगवान हनुमान की भक्ति से जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
भगवान हनुमान की कृपा
सुंदरकाण्ड का नियमित पाठ करने से भगवान हनुमान की कृपा प्राप्त होती है। यह उनके आशीर्वाद और समर्थन को प्राप्त करने का उत्तम मार्ग है।
आत्मबल और साहस में वृद्धि
सुंदरकाण्ड का पाठ आत्मबल और साहस में वृद्धि करता है। इससे व्यक्ति में साहस, आत्मविश्वास और दृढ़ संकल्प की भावना विकसित होती है।
पारिवारिक सुख और समृद्धि
पारिवारिक संबंधों में सुधार
सुंदरकाण्ड का पाठ पारिवारिक संबंधों में सुधार करता है। इससे घर में प्रेम, सद्भाव और आपसी समझ बढ़ती है।
घर में सुख-शांति
सुंदरकाण्ड का पाठ घर में सुख-शांति लाता है। इससे घर के सभी सदस्य शांति और आनंद का अनुभव करते हैं।
आर्थिक समृद्धि
सुंदरकाण्ड का पाठ आर्थिक समृद्धि की प्राप्ति में सहायक होता है। इससे धन-धान्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है।
जीवन में सकारात्मक बदलाव
सकारात्मक सोच
सुंदरकाण्ड का पाठ जीवन में सकारात्मक सोच को बढ़ावा देता है। इससे व्यक्ति के विचार और दृष्टिकोण में सकारात्मकता आती है। ये आप sunderkand pdf पेज पे भी पढ़ सकते है।
कठिनाइयों से मुक्ति
सुंदरकाण्ड का पाठ जीवन की कठिनाइयों और समस्याओं से मुक्ति दिलाता है। यह संकट के समय साहस और समाधान प्रदान करता है।
आत्मविश्वास में वृद्धि
सुंदरकाण्ड का पाठ आत्मविश्वास में वृद्धि करता है। इससे व्यक्ति में आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन की भावना बढ़ती है।
सुंदरकाण्ड का पाठ और ज्योतिषीय लाभ
ग्रह दोषों का निवारण
सुंदरकाण्ड का पाठ करने से ज्योतिषीय दोषों का निवारण होता है। इससे ग्रह दोष और उनकी समस्याओं से मुक्ति मिलती है।
शुभ फल की प्राप्ति
सुंदरकाण्ड का पाठ करने से शुभ फल की प्राप्ति होती है। इससे व्यक्ति को जीवन में सफलता और समृद्धि प्राप्त होती है।
कुंडली दोषों का शमन
सुंदरकाण्ड का पाठ कुंडली दोषों का शमन करता है। इससे ज्योतिषीय समस्याओं और उनके निवारण का समाधान मिलता है।
सुंदरकाण्ड का पाठ और वास्तु दोष निवारण
वास्तु दोषों का निवारण
सुंदरकाण्ड का पाठ करने से घर के वास्तु दोषों का निवारण होता है। इससे घर में शांति और समृद्धि का वातावरण बनता है। ये सारी बातें sunderkand pdf में लिखी गयी है।
घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार
सुंदरकाण्ड का पाठ घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है। इससे घर के सभी सदस्य ऊर्जा और उत्साह से भरे रहते हैं।
वास्तु दोष निवारण के उपाय
सुंदरकाण्ड का पाठ वास्तु दोषों के निवारण के लिए उत्तम उपाय है। इससे घर की ऊर्जा संतुलित रहती है और सभी प्रकार की नकारात्मकता दूर होती है।
सुंदरकाण्ड का पाठ और संकटों का निवारण
संकटों से मुक्ति
सुंदरकाण्ड का पाठ संकटों से मुक्ति दिलाता है। यह भगवान हनुमान की कृपा से संकटों और समस्याओं का समाधान प्रदान करता है।
दुर्घटनाओं से बचाव
सुंदरकाण्ड का पाठ दुर्घटनाओं से बचाव करता है। इससे जीवन में सुरक्षा और संरक्षण की भावना बढ़ती है।
शत्रुओं से सुरक्षा
सुंदरकाण्ड का पाठ शत्रुओं से सुरक्षा प्रदान करता है। इससे व्यक्ति को शत्रुओं से रक्षा मिलती है और जीवन में शांति बनी रहती है।
सुंदरकाण्ड के पाठ के सामाजिक लाभ
सामुदायिक एकता
सुंदरकाण्ड का पाठ सामुदायिक एकता को बढ़ावा देता है। इससे समाज में सहयोग और एकजुटता की भावना प्रबल होती है। सुंदरकांड पीडीऍफ़ का लिंक निचे है।
धार्मिक और सांस्कृतिक उन्नति
सुंदरकाण्ड का पाठ धार्मिक और सांस्कृतिक उन्नति को प्रोत्साहित करता है। इससे समाज में धार्मिकता और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित रखने में सहायता मिलती है।
समाज में शांति और सद्भाव
सुंदरकाण्ड का पाठ समाज में शांति और सद्भाव को बढ़ावा देता है। इससे समाज में सौहार्द और मैत्री का वातावरण बनता है।
Sunderkand lyrics सुंदरकांड लिखित में
।। ॐ श्री गणेशाय नमः ।।
।। श्रीजानकीवल्लभो विजयते ।।
।। श्रीरामचरितमानस पञ्चम सोपान श्री सुन्दरकाण्ड ।।
।। श्लोक ।।
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् ।।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम् ।।
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा ।।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ।।
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ।।
शांत, शाश्वत, अप्रमेय, पवित्र, निर्वाण (मोक्ष) और शांति देने वाला,
ब्रह्मा, शिव और नागराज द्वारा निरंतर सेवा किया जाने वाला,
वेदांत से ज्ञात होने वाला, सर्वव्यापी,
राम नामक, जगदीश्वर, देवताओं का गुरु,
माया से मनुष्य रूप में प्रकट हुआ, हरि (विष्णु),
मैं उस करुणामय रघुवर को प्रणाम करता हूँ, जो राजाओं के मस्तक की मणि है।
हे रघुपति, मेरे हृदय में किसी अन्य की स्पृहा नहीं है,
मैं सत्य कहता हूँ कि आप समस्त प्राणियों के अंतरात्मा हैं।
हे रघुपुंगव, मुझे ऐसी भक्ति प्रदान करें,
जो काम आदि दोषों से रहित हो और मेरे मन को पवित्र कर दें।
अतुलनीय बलधारी, स्वर्ण पर्वत (सुमेरु) के समान शरीर वाले,
दानवों के वन को अग्नि के समान नष्ट करने वाले,
ज्ञानियों में अग्रणी,
सभी गुणों के निधान, वानरों के अधिपति,
रघुपति के प्रिय भक्त, वायुपुत्र हनुमान को मैं प्रणाम करता हूँ।
।। चौपाई ।।
जामवंत के बचन सुहाए । सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ।।
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई । सहि दुख कंद मूल फल खाई ।।
जब लगि आवौं सीतहि देखी । होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ।।
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा ।।
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर । कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ।।
बार बार रघुबीर सँभारी । तरकेउ पवनतनय बल भारी ।।
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता । चलेउ सो गा पाताल तुरंता ।।
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना । एही भाँति चलेउ हनुमाना ।।
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी । तैं मैनाक होहि श्रमहारी ।।
जामवंत के सुहावने वचन सुनकर हनुमान जी का हृदय बहुत प्रसन्न हो गया। जामवंत ने कहा, “भाई, तुम मुझे तब तक परखते रहना जब तक मैं सीता जी को देखकर नहीं लौट आता। तब तक मैं दुख सहकर, कंद-मूल और फल खाकर यात्रा करूँगा। जब मैं लौटकर आऊँगा और सीता जी का दर्शन कर लूँगा, तब मुझे बहुत विशेष प्रसन्नता होगी।” यह कहकर, सबको सिर झुकाकर प्रणाम किया और रघुनाथ जी को हृदय में धारण करके हर्षित होकर चल पड़े। समुद्र के किनारे एक सुंदर पर्वत था, हनुमान जी ने कौतुकपूर्वक उसे कूदकर चढ़ लिया। बार-बार रघुवीर श्रीराम को स्मरण करते हुए पवनपुत्र हनुमान ने अपनी प्रबल शक्ति से छलांग लगाई। जिस पर्वत पर हनुमान जी ने अपने चरण रखे थे, वह तुरंत पाताल में चला गया। जैसे रघुपति श्रीराम का बाण कभी व्यर्थ नहीं जाता, उसी प्रकार हनुमान जी चले। समुद्र ने रघुपति के दूत हनुमान जी को देखकर मैनाक पर्वत से कहा, “तुम इनकी थकान को दूर करो।”
दोहा: हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम ।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ।।
।। चौपाई ।।
जात पवनसुत देवन्ह देखा । जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा ।।
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता । पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता ।।
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा । सुनत बचन कह पवनकुमारा ।।
राम काजु करि फिरि मैं आवौं । सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं ।।
तब तव बदन पैठिहउँ आई । सत्य कहउँ मोहि जान दे माई ।।
कबनेहुँ जतन देइ नहिं जाना । ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना ।।
जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा । कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ।।
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ । तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ ।।
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा । तासु दून कपि रूप देखावा ।।
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा । अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा ।।
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा । मागा बिदा ताहि सिरु नावा ।।
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा । बुधि बल मरमु तोर मै पावा ।।
जब पवनसुत हनुमान को देवताओं ने जाते हुए देखा, तो वे जानना चाहते थे कि उनके बल और बुद्धि में क्या विशेषता है। अहिरावण की माता सुरसा नाम की राक्षसी को उन्होंने भेजा, जो आकर बोली, “आज देवताओं ने मुझे आहार दिया है।” यह सुनकर पवनकुमार हनुमान ने कहा, “मैं राम का कार्य पूरा करके लौटूंगा और सीता की खबर प्रभु को सुनाऊंगा। तब मैं तुम्हारे मुख में प्रवेश करूंगा। सत्य कहता हूँ, मुझे जाने दो, माँ।” किन्तु सुरसा ने किसी भी तरह से जाने नहीं दिया और कहा, “मैं तुम्हें ग्रस लूंगी।” सुरसा ने अपना मुख एक योजन (लगभग 8-12 मील) तक फैलाया। तब हनुमान ने अपना शरीर दुगना बड़ा कर लिया। सुरसा ने अपना मुख सोलह योजन तक फैला दिया। तुरंत पवनसुत हनुमान बत्तीस योजन बड़े हो गए। जैसे-जैसे सुरसा अपना मुख बढ़ाती गई, वैसे-वैसे हनुमान अपना आकार दोगुना कर लेते। सुरसा ने अपना मुख साठ योजन तक बड़ा किया। तब पवनसुत हनुमान ने अति लघु रूप धारण कर लिया। फिर हनुमान सुरसा के मुख में प्रवेश कर बाहर आ गए और सिर झुका कर उनसे विदा मांगी। हनुमान ने कहा, “देवताओं ने मुझे जिसके लिए भेजा है, तुम्हारी बुद्धि, बल और मर्म को मैंने समझ लिया है।”
दोहा: राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान ।
आसिष देह गई सो हरषि चलेउ हनुमान ।।
।। चौपाई ।।
निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई । करि माया नभु के खग गहई ।।
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं । जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं ।।
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई । एहि बिधि सदा गगनचर खाई ।।
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा । तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ।।
ताहि मारि मारुतसुत बीरा । बारिधि पार गयउ मतिधीरा ।।
तहाँ जाइ देखी बन सोभा । गुंजत चंचरीक मधु लोभा ।।
नाना तरु फल फूल सुहाए । खग मृग बृंद देखि मन भाए ।।
सैल बिसाल देखि एक आगें । ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें ।।
उमा न कछु कपि कै अधिकाई । प्रभु प्रताप जो कालहि खाई ।।
गिरि पर चढि लंका तेहिं देखी । कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी ।।
अति उतंग जलनिधि चहु पासा । कनक कोट कर परम प्रकासा ।।
समुद्र में एक राक्षसी रहती थी, जो माया करके आकाश में उड़ने वाले पक्षियों को पकड़ती थी।
जो भी जीव-जन्तु आकाश में उड़ते थे, वह जल में उनकी परछाईं देखकर पकड़ लेती थी।
वह उनकी परछाईं पकड़ती थी जिससे वे उड़ नहीं पाते थे, और इस प्रकार वह हमेशा आकाश में उड़ने वालों को खाती रहती थी।
उसने हनुमान जी के साथ भी वही छल किया, लेकिन हनुमान जी ने तुरंत उसके कपट को पहचान लिया।
वीर मारुति सुत (हनुमान) ने उसे मार डाला और धीर बुद्धि से समुद्र पार कर गए।
वहां जाकर उन्होंने वन की शोभा देखी, जहाँ मधुमक्खियों के गुंजार से मधु (शहद) का लोभ हो रहा था।
वहां विभिन्न प्रकार के पेड़, फल, और सुंदर फूल थे। पक्षियों और मृगों (हिरणों) के झुंड देखकर हनुमान जी का मन प्रसन्न हो गया।
उन्होंने सामने एक विशाल पर्वत देखा और बिना किसी भय के उस पर चढ़ गए।
उमा (पार्वती), यह हनुमान जी की महानता नहीं थी, बल्कि प्रभु (राम) का प्रताप था जो काल (मृत्यु) को भी खा जाता है।
पर्वत पर चढ़कर उन्होंने लंका देखी, जो अत्यधिक दुर्गम और विशेष रूप से सुरक्षित थी।
यह चारों ओर से अत्यधिक ऊँची और जलनिधि (समुद्र) से घिरी थी, और स्वर्ण से निर्मित इसकी प्राचीर (किले की दीवार) अत्यधिक प्रकाशमान थी।
।। छंद ।।
कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना ।।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना ।।
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथिन्ह को गनै ।।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै ।।
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं ।।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं ।।
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं ।।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहु बिधि एक एकन्ह तर्जहीं ।।
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं ।।
कहुँ महिष मानषु धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं ।।
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही ।।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही ।।
स्वर्ण से निर्मित किले में अद्भुत रत्नों से सजी सुंदर इमारतें घनी हैं।
चौक, बाजार, सुंदर सड़कें, और गलियां – यह सब मिलकर नगर को विभिन्न प्रकार से सुंदर बनाती हैं।
हाथी, घोड़े, खच्चर, पैदल सैनिकों और रथों की गिनती नहीं की जा सकती।
विभिन्न रूप धारण करने वाले राक्षसों के झुंडों की सेना इतनी शक्तिशाली थी कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
वन, बाग, उपवन, वाटिका, सरोवर, कुएं और बावलियाँ सुशोभित हो रही थीं।
नर, नाग, देवता, गंधर्व की कन्याएँ अपने रूप से मुनियों के मन को मोह लेती थीं।
कहीं विशाल पर्वत के समान बलशाली मल्ल योद्धा गर्जना कर रहे थे।
विभिन्न अखाड़ों में लड़ाई करते हुए वे एक-दूसरे को विभिन्न प्रकार से धमका रहे थे।
असंख्य भयंकर योद्धा अपनी विकट देह के साथ नगर की चारों दिशाओं में रक्षा कर रहे थे।
कहीं राक्षस महिष (भैंस), मानव, गाय, गधा, बकरी आदि को भक्षण कर रहे थे।
इसलिए तुलसीदास ने इनकी कथा संक्षेप में कही है।
रघुवीर (राम) के बाणों से पीड़ित होकर वे शरीर त्याग कर सही गति प्राप्त करेंगे।
दोहा: पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार ।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार ।।
Sunderkand PDF in Hindi
।। चौपाई ।।
मसक समान रूप कपि धरी । लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ।।
नाम लंकिनी एक निसिचरी । सो कह चलेसि मोहि निंदरी ।।
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा । मोर अहार जहाँ लगि चोरा ।।
मुठिका एक महा कपि हनी । रुधिर बमत धरनीं ढनमनी ।।
पुनि संभारि उठि सो लंका । जोरि पानि कर बिनय संसका ।।
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा । चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ।।
बिकल होसि तैं कपि कें मारे । तब जानेसु निसिचर संघारे ।।
तात मोर अति पुन्य बहूता । देखेउँ नयन राम कर दूता ।।
हनुमान जी ने मच्छर के समान छोटा रूप धारण किया और नरहरि (राम) का स्मरण करके लंका की ओर चले। वहाँ लंकिनी नामक एक राक्षसी थी। उसने कहा, “तुम मुझे नहीं पहचानते।” “तू मेरा रहस्य नहीं जानता, मूर्ख। जहाँ तक चोर हैं, वे मेरे आहार हैं।” महान कपि (हनुमान) ने उसे एक घूंसा मारा जिससे वह खून उगलते हुए धरती पर गिर पड़ी। फिर उसने संभलकर उठकर हनुमान जी से कहा, “हे लंका के रक्षक, मुझे क्षमा करें।” जब रावण को ब्रह्मा जी ने वरदान दिया था, तब ब्रह्मा जी ने कहा था कि मुझे पहचान लेना। तू हनुमान के द्वारा मारा जाएगा, तब समझ लेना कि राक्षसों का संघार हो गया है। हे तात (हनुमान), मेरा बड़ा पुन्य है कि मैंने राम के दूत को अपने नेत्रों से देखा।
दोहा – तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ।।4 ।।
।। चौपाई ।।
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा । हृदयँ राखि कौसलपुर राजा ।।
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई । गोपद सिंधु अनल सितलाई ।।
गरुड़ सुमेरु रेनू सम ताही । राम कृपा करि चितवा जाही ।।
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना । पैठा नगर सुमिरि भगवाना ।।
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा । देखे जहँ तहँ अगनित जोधा ।।
गयउ दसानन मंदिर माहीं । अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं ।।
सयन किए देखा कपि तेही । मंदिर महुँ न दीखि बैदेही ।।
भवन एक पुनि दीख सुहावा । हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा ।।
हनुमान जी ने नगर में प्रवेश कर के सभी कार्य किए, और अपने हृदय में कौशलपुर (अयोध्या) के राजा श्रीराम को धारण किया।
जिनकी कृपा से विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्र बन जाते हैं, गोमुख का जल समुद्र बन जाता है, और आग शीतल हो जाती है।
जिन्हें राम की कृपा दृष्टि प्राप्त हो जाती है, उनके लिए गरुड़ (पक्षियों का राजा) और सुमेरु (पर्वत) धूल के समान हो जाते हैं।
हनुमान जी ने अत्यंत लघु रूप धारण किया और भगवान का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया।
वह प्रत्येक मंदिर में जाकर जाँच करने लगे और जहाँ-तहाँ अनगिनत योद्धाओं को देखा।
वे रावण के मंदिर में गए, जो अत्यंत विचित्र और अनुपम था, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
हनुमान जी ने रावण को सोते हुए देखा, परंतु मंदिर में वैदेही (सीता जी) नहीं दिखाई दीं।
फिर एक और सुंदर भवन दिखाई दिया, जो हरि मंदिर से अलग बनाया गया था।
दोहा – रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरषि कपिराइ ।।
।। चौपाई ।।
लंका निसिचर निकर निवासा । इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ।।
मन महुँ तरक करै कपि लागा । तेहीं समय बिभीषनु जागा ।।
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा । हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा ।।
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी । साधु ते होइ न कारज हानी ।।
बिप्र रुप धरि बचन सुनाए । सुनत बिभीषण उठि तहँ आए ।।
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई । बिप्र कहहु निज कथा बुझाई ।।
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई । मोरें हृदय प्रीति अति होई ।।
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी । आयहु मोहि करन बड़भागी ।।
लंका राक्षसों का निवास स्थान है। यहाँ सज्जन पुरुष कहाँ रह सकते हैं? हनुमान जी मन ही मन विचार करने लगे। तभी विभीषण जाग गए। विभीषण ने “राम-राम” का स्मरण किया। हनुमान जी ने हृदय में प्रसन्न होकर सज्जन को पहचाना। हनुमान जी ने सोचा, “इससे हठपूर्वक पहचान करूँगा। साधु से कार्य में हानि नहीं होती।” ब्राह्मण का रूप धारण कर उन्होंने बातें सुनाई। सुनते ही विभीषण उठकर वहाँ आए। प्रणाम करके उन्होंने कुशल-क्षेम पूछी। ब्राह्मण से कहा, “अपनी कथा समझाकर कहिए। क्या आप हरि (भगवान) के दासों में से कोई हैं? मेरे हृदय में आपसे अत्यंत प्रीति हो रही है। क्या आप राम के दीन अनुरागी (प्रेमी) हैं? क्या आप मेरे बड़े भाग्य को करने के लिए आए हैं?”
दोहा – तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम ।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ।।
।। चौपाई ।।
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी । जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी ।।
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा । करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा ।।
तामस तनु कछु साधन नाहीं । प्रीति न पद सरोज मन माहीं ।।
अब मोहि भा भरोस हनुमंता । बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ।।
जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा । तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा ।।
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती । करहिं सदा सेवक पर प्रीती ।।
कहहु कवन मैं परम कुलीना । कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ।।
प्रात लेइ जो नाम हमारा । तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ।।
मेरे वानरपति हनुमान, मेरे साथ रहो। जैसे दसानन्हि के मुँह से जीभ बिचारी है।
पिताजी, कभी मुझे अनाथ समझकर कृपा करते हैं, हे सूर्यपुत्र नाथ।
तामस शरीर में कुछ भी साधना नहीं है, मन में प्रेम नहीं है भगवान के पादारविंदों में।
अब मुझे भरोसा है, हे हनुमान, भगवान की कृपा के बिना संताना नहीं मिल सकती।
जब रघुवीर ने कृपा की, तब तुम्हें मुझे दर्शन हो गए हाँ।
सुनो, विभीषण, भगवान के इस प्रकार के रीति को, सदा सेवक बनकर प्रीति से कार्य करो।
कहो, कौन हूँ मैं, परम कुलीन? सभी वानर चंचल और सभी बिना बुद्धि हैं।
प्रातः को जब लोग मेरा नाम लेते हैं, उसी दिन उन्हें अहार नहीं मिलता है।
दोहा: अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर ।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ।।
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।। चौपाई ।।
जानतहूँ अस स्वामि बिसारी । फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी ।।
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा । पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा ।।
पुनि सब कथा बिभीषन कही । जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही ।।
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता । देखी चहउँ जानकी माता ।।
जुगुति बिभीषन सकल सुनाई । चलेउ पवनसुत बिदा कराई ।।
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ । बन असोक सीता रह जहवाँ ।।
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा । बैठेहिं बीति जात निसि जामा ।।
कृस तन सीस जटा एक बेनी । जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी ।।
स्वामी (भगवान) को जानकर भी यदि उसे भुला देते हैं, तो फिर दुःख क्यों नहीं होता? इस प्रकार रामजी के गुणों का वर्णन करते हुए, अनिर्वचनीय विश्राम (शांति) प्राप्त हुआ।
फिर विभीषण ने सब कथा बताई कि जनकनंदिनी (सीता) वहाँ किस प्रकार रहती हैं। तब हनुमान ने कहा, “भाई, मैं माता जानकी को देखना चाहता हूँ।”
विभीषण ने पूरी विधि बताई और हनुमान को विदा किया। हनुमान फिर वही रूप धारण करके वहाँ गए, जहाँ अशोक वाटिका में सीता रहती थीं।
उन्हें देखकर मन ही मन प्रणाम किया। सीता वहाँ बैठी हुई रात के समय का बीतना सह रही थीं।उनका शरीर कृश (दुर्बल) हो गया था, सिर पर एक जटा थी, और वे हृदय में राम के गुणों की माला जप रही थीं।
दोहा: निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन ।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ।।8 ।।
।। चौपाई ।।
तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई । करइ बिचार करौं का भाई ।।
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा । संग नारि बहु किएँ बनावा ।।
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा । साम दान भय भेद देखावा ।।
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी । मंदोदरी आदि सब रानी ।।
तव अनुचरीं करउँ पन मोरा । एक बार बिलोकु मम ओरा ।।
तृन धरि ओट कहति बैदेही । सुमिरि अवधपति परम सनेही ।।
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा । कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा ।।
अस मन समुझु कहति जानकी । खल सुधि नहिं रघुबीर बान की ।।
सठ सूने हरि आनेहि मोहि । अधम निलज्ज लाज नहिं तोही ।।
हनुमान जी पेड़ की पत्तियों में छिपे हुए थे और विचार कर रहे थे कि क्या करना चाहिए। उसी समय रावण वहाँ आया और उसके साथ कई स्त्रियाँ भी थीं, जिन्हें उसने सजाया हुआ था।
रावण ने सीता को अनेक प्रकार से समझाने की कोशिश की। उसने साम, दान, भय और भेद के सारे उपाय दिखाए।
रावण ने कहा, “हे सुमुखि सयानी, सुनो। मंदोदरी आदि सभी रानियाँ मेरी हैं। तुम मेरी अनुचरी (सेविका) बन जाओ, यही मेरा प्रण है। एक बार मेरी ओर देखो।”
सीता ने घास का तिनका पकड़कर उसे ओट बनाकर कहा, “हे अवधपति के परम स्नेही (राम) को स्मरण करते हुए, सुनो रावण। तुम्हारा प्रकाश (शोभा) खद्योत (जुगनू) की तरह है। क्या कमल (नलिनी) कभी जुगनू के प्रकाश से खिल सकती है?”
सीता इस प्रकार मन में समझा रही थीं और कह रही थीं, “हे दुष्ट रावण, तुम्हें रघुवीर के बाणों की सुधि नहीं है। हे मूर्ख, तुझे हरि (राम) लाएंगे। अधम और निर्लज्ज, तुझे लाज नहीं आती।”
दोहा: आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान ।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ।।
।। चौपाई ।।
सीता तैं मम कृत अपमाना । कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना ।।
नाहिं त सपदि मानु मम बानी । सुमुखि होति न त जीवन हानी ।।
स्याम सरोज दाम सम सुंदर । प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर ।।
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा । सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा ।।
चंद्रहास हरु मम परितापं । रघुपति बिरह अनल संजातं ।।
सीतल निसित बहसि बर धारा । कह सीता हरु मम दुख भारा ।।
सुनत बचन पुनि मारन धावा । मयतनयाँ कहि नीति बुझावा ।।
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई । सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई ।।
मास दिवस महुँ कहा न माना । तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना ।।
रावण कहता है, “सीता, तुमने मेरा अपमान किया है। मैं अपनी कठोर कृपाण से तुम्हारा सिर काट दूंगा। अगर तुम मेरी बात नहीं मानोगी तो तुम्हें अपने जीवन से हाथ धोना पड़ेगा।”
रावण ने आगे कहा, “हे सुमुखि, तुम्हारा रूप श्याम (नीला) कमल के गुच्छ की तरह सुंदर है। प्रभु (राम) की भुजाओं ने जिसे धारण किया है, वह दसकंधर (रावण) के हाथ में कैसे आ सकती है? सुनो सठ, यह मेरा प्रण है।”
“हे चंद्रहास (रावण की तलवार का नाम), मेरे रघुपति के विरह के कारण जो दुख है, उसे हर लो। तुम अपनी शीतल और तेज धार से मेरे दुखों का भार हर लो,” सीता ने कहा।
रावण ने सीता के ये वचन सुने और फिर से मारने के लिए दौड़ा। तब मयदानव की बेटी मंदोदरी ने नीति की बात कहकर रावण को समझाया।
रावण ने सभी निशाचरियों (राक्षसी स्त्रियों) को बुलाकर कहा, “सीता को कई प्रकार से त्रास (कष्ट) दो। अगर वह एक महीने के भीतर नहीं मानी, तो मैं अपनी कृपाण से उसे मार डालूंगा।”
दोहा: भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद ।
सीतहि त्रास देखावहि धरहिं रूप बहु मंद ।।
।। चौपाई ।।
त्रिजटा नाम राच्छसी एका । राम चरन रति निपुन बिबेका ।।
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना । सीतहि सेइ करहु हित अपना ।।
सपनें बानर लंका जारी । जातुधान सेना सब मारी ।।
खर आरूढ़ नगन दससीसा । मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ।।
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई । लंका मनहुँ बिभीषन पाई ।।
नगर फिरी रघुबीर दोहाई । तब प्रभु सीता बोलि पठाई ।।
यह सपना में कहउँ पुकारी । होइहि सत्य गएँ दिन चारी ।।
तासु बचन सुनि ते सब डरीं । जनकसुता के चरनन्हि परीं ।।
त्रिजटा नाम की एक राक्षसी थी, जो राम के चरणों में रति (प्रेम) रखती थी और विवेक में निपुण थी। उसने सभी राक्षसियों को बुलाकर अपना सपना सुनाया और कहा कि सीता की सेवा करो, यही तुम्हारे लिए हितकर होगा।
सपने में उसने देखा कि वानरों ने लंका जला दी और राक्षसों की सेना को मार डाला। रावण एक गधे पर नग्न सवार है, उसका सिर मुंडित है और उसकी बीस भुजाएं कटी हुई हैं।
इस प्रकार रावण दक्षिण दिशा की ओर जा रहा है और ऐसा लग रहा है कि लंका विभीषण को मिल गई है। फिर नगर में रघुवीर (राम) की जय-जयकार हो रही है और प्रभु ने सीता को बुलाकर भेजा है।
त्रिजटा ने कहा, “यह सपना मैं जोर से कह रही हूँ, यह सत्य हो जाएगा चार दिनों में।”
उसके वचन सुनकर सभी राक्षसियां डर गईं और जनकनंदिनी (सीता) के चरणों में गिर पड़ीं।
दोहा: जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच ।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ।।
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।। चौपाई ।।
त्रिजटा सन बोली कर जोरी । मातु बिपति संगिनि तैं मोरी ।।
तजौं देह करु बेगि उपाई । दुसहु बिरहु अब नहिं सहि जाई ।।
आनि काठ रचु चिता बनाई । मातु अनल पुनि देहि लगाई ।।
सत्य करहि मम प्रीति सयानी । सुनै को श्रवन सूल सम बानी ।।
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि । प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि ।।
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी । अस कहि सो निज भवन सिधारी ।।
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला । मिलहि न पावक मिटिहि न सूला ।।
देखिअत प्रगट गगन अंगारा । अवनि न आवत एकउ तारा ।।
पावकमय ससि स्त्रवत न आगी । मानहुँ मोहि जानि हतभागी ।।
सुनहि बिनय मम बिटप असोका । सत्य नाम करु हरु मम सोका ।।
नूतन किसलय अनल समाना । देहि अगिनि जनि करहि निदाना ।।
देखि परम बिरहाकुल सीता । सो छन कपिहि कलप सम बीता ।।
त्रिजटा से सीता ने हाथ जोड़कर कहा, “माँ, तुम मेरी विपत्ति की संगिनी हो। अब मैं इस देह को त्यागना चाहती हूँ, कोई उपाय करो। यह विरह अब सहा नहीं जाता।”
“लकड़ी लाकर एक चिता बनाओ और उस पर आग लगा दो, माँ। अगर तुम मेरी सच्ची सखी हो तो मेरी इस प्रीति को सत्य कर दो। तुम्हारी बातें सुनकर ऐसा लगता है जैसे मेरे कानों में सूल (कांटे) चुभ रहे हों।”
त्रिजटा ने सीता के वचन सुनकर उनके चरण पकड़कर उन्हें समझाया और राम के प्रताप, बल, और सुयश की बातें सुनाईं। फिर त्रिजटा ने कहा, “हे सुकुमारी, रात में आग नहीं मिल सकती,” और अपने भवन को लौट गई।
सीता ने कहा, “विधाता मेरे विपरीत हो गए हैं। न तो आग मिल रही है और न ही मेरा दुख मिट रहा है। आसमान में अंगारे तो दिख रहे हैं, लेकिन जमीन पर एक भी तारा नहीं आ रहा है।”
चंद्रमा भी आग से भरा हुआ है, लेकिन वह आग भी नहीं दे रहा है, मानो उसने मुझे हतभागिनी (दुर्भाग्यशाली) मान लिया हो।
सीता ने अशोक वृक्ष से विनती की, “हे अशोक, सुनो मेरी विनती। तुम्हारा नाम सत्य कर दो और मेरा शोक हर लो। तुम्हारे नए पत्ते आग के समान हैं, इन्हें मुझे आग दो ताकि मैं इस विरह की पीड़ा को समाप्त कर सकूं।”
विरह में अत्यंत दुखी सीता को देखकर वह क्षण हनुमान जी के लिए कल्प (युग) के समान बीत रहा था।
।। सोरठा: ।।
कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारी तब ।
जनु असोक अंगार दीन्हि हरषि उठि कर गहेउ ।।
।। चौपाई ।।
तब देखी मुद्रिका मनोहर । राम नाम अंकित अति सुंदर ।।
चकित चितव मुदरी पहिचानी । हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी ।।
जीति को सकइ अजय रघुराई । माया तें असि रचि नहिं जाई ।।
सीता मन बिचार कर नाना । मधुर बचन बोलेउ हनुमाना ।।
रामचंद्र गुन बरनैं लागा । सुनतहिं सीता कर दुख भागा ।।
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई । आदिहु तें सब कथा सुनाई ।।
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई । कहि सो प्रगट होति किन भाई ।।
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ । फिरि बैंठीं मन बिसमय भयऊ ।।
राम दूत मैं मातु जानकी । सत्य सपथ करुनानिधान की ।।
यह मुद्रिका मातु मैं आनी । दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी ।।
नर बानरहि संग कहु कैसें । कहि कथा भइ संगति जैसें ।।
सीता ने तब एक मनोहर मुद्रिका (अंगूठी) देखी, जो राम नाम से अंकित और अत्यंत सुंदर थी। उन्होंने मुद्रिका को पहचान कर चकित होकर देखा, और हर्ष (आनंद) और विषाद (दुःख) से उनका हृदय अकुला उठा।
उन्होंने सोचा, “अजय रघुराई (अजय राम) को कौन जीत सकता है? यह माया से बनाई गई नहीं हो सकती।”
सीता मन में कई विचार करने लगीं, तभी हनुमान ने मधुर वचनों से बोलना शुरू किया। रामचंद्र के गुणों का वर्णन करते ही सीता का दुख दूर हो गया।
सीता मन लगाकर सुनने लगीं और हनुमान ने आदिकाल से सारी कथा सुनाई। जो अमृत तुल्य कथा श्रवण कर रही थीं, वे सोचने लगीं कि यह कथा सुनाने वाला कौन हो सकता है?
तब हनुमान सीता के निकट जाकर बोले, “मैं राम का दूत हूँ, हे माता जानकी। करुणानिधान (दया के भंडार) राम की सच्ची शपथ खाता हूँ।”
“यह मुद्रिका (अंगूठी) माता, मैंने राम से ली है और उन्होंने आपको देने के लिए मुझे दी।”
“मुझे बताइए, हे माता, कि नर और वानर का संग कैसे हुआ? मुझे सारी कथा बताइए कि कैसे यह संगति (संबंध) बनी।”
दोहा: कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास ।।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ।।
।। चौपाई ।।
हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी । सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी ।।
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना । भयउ तात मों कहुँ जलजाना ।।
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी । अनुज सहित सुख भवन खरारी ।।
कोमलचित कृपाल रघुराई । कपि केहि हेतु धरी निठुराई ।।
सहज बानि सेवक सुख दायक । कबहुँक सुरति करत रघुनायक ।।
कबहुँ नयन मम सीतल ताता । होइहहि निरखि स्याम मृदु गाता ।।
बचनु न आव नयन भरे बारी । अहह नाथ हौं निपट बिसारी ।।
देखि परम बिरहाकुल सीता । बोला कपि मृदु बचन बिनीता ।।
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता । तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ।।
जनि जननी मानहु जियँ ऊना । तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना ।।
सीता ने हनुमान को अपना हरिजन (भक्त) जानकर अत्यंत गाढ़ी प्रीति (प्रेम) व्यक्त की। उनके नेत्र सजल हो गए और शरीर पुलकित हो गया।
विरह के जलधि (सागर) में डूबती हुई सीता ने हनुमान से कहा, “तात, तुम मेरे लिए जलज (कमल) के समान हो गए हो। अब मुझे प्रभु राम के कुशल की जानकारी दो, मैं तुम्हारी बलिहारी जाती हूँ। खरारी (राक्षसों के शत्रु राम) अपने अनुज (लक्ष्मण) के साथ सुखपूर्वक हैं या नहीं?”
“कोमलचित्त और कृपालु रघुराई (राम) ने वानर (हनुमान) के प्रति कठोरता क्यों धारण की है? उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति सेवकों को सुख देने की है। क्या रघुनायक (राम) कभी मेरी याद करते हैं?”
“क्या मेरे नेत्र कभी शीतल होंगे, हे तात, जब वे श्याम (काले) और मृदु (नरम) गात (शरीर) वाले राम को देखेंगे?”
“मेरे वचन नहीं निकल रहे हैं, नेत्रों में आँसू भर गए हैं। अह, नाथ, आप मुझे पूरी तरह भूल गए हैं।”
सीता को परम विरह से व्याकुल देखकर हनुमान ने विनम्र और मृदु वचनों से कहा, “मातु, प्रभु और अनुज सहित सब कुशल हैं। वे कृपा के भंडार हैं और आपके दुख से दुखी हैं।”
“हे जननी, मन में ऐसा मत सोचो कि राम का प्रेम तुम्हारे प्रति कम हो गया है। तुम्हारे प्रति उनका प्रेम दोगुना है।”
दोहा: रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर ।
अस कहि कपि गद गद भयउ भरे बिलोचन नीर ।।
।। चौपाई ।।
कहेउ राम बियोग तव सीता । मो कहुँ सकल भए बिपरीता ।।
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू । कालनिसा सम निसि ससि भानू ।।
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा । बारिद तपत तेल जनु बरिसा ।।
जे हित रहे करत तेइ पीरा । उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा ।।
कहेहू तें कछु दुख घटि होई । काहि कहौं यह जान न कोई ।।
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा । जानत प्रिया एकु मनु मोरा ।।
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं । जानु प्रीति रसु एतेनहि माहीं ।।
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही । मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ।।
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता । सुमिरु राम सेवक सुखदाता ।।
उर आनहु रघुपति प्रभुताई । सुनि मम बचन तजहु कदराई ।।
हनुमान जी कहते हैं, “हे सीता, राम ने कहा कि आपके वियोग में मेरे लिए सब कुछ विपरीत हो गया है। नए पेड़ की कोमल पत्तियां भी मानो आग की लपटें हैं, रातें कालनिसा (अंधेरी रात) जैसी हो गई हैं और चंद्रमा और सूरज भी दुखी प्रतीत होते हैं।”
“कमल के वन भी अब कुंत (कांटेदार) बन जैसे हैं और बादल तपता हुआ तेल बरसा रहे हैं। जो चीजें पहले सुखदायक थीं, वे अब पीड़ा देने लगी हैं। तीन प्रकार की वायु (त्रिविध समीर) भी अब साँप की साँस जैसी लगती हैं।”
“कहने से कुछ दुख कम हो सकता है, लेकिन इसे किसे कहूँ? कोई नहीं जानता।”
“तत्व प्रेम (सच्चा प्रेम) जो मेरे और तुम्हारे बीच है, उसे केवल मेरा एक मन जानता है, प्रिय। वह मन हमेशा तुम्हारे पास रहता है। जान लो कि इस प्रेम रस की यही सच्चाई है।”
प्रभु का संदेश सुनते ही वैदेही (सीता) प्रेम में मग्न हो गईं और अपने शरीर की सुधि खो बैठीं। हनुमान ने कहा, “माता, हृदय में धैर्य रखो। राम का स्मरण करो, जो सेवकों को सुख देने वाले हैं।”
“अपने हृदय में रघुपति (राम) की महिमा को लाओ। मेरे वचन सुनकर अपने संकोच को त्यागो।”
दोहा: निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु ।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ।।
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।। चौपाई ।।
जौं रघुबीर होति सुधि पाई । करते नहिं बिलंबु रघुराई ।।
रामबान रबि उएँ जानकी । तम बरूथ कहँ जातुधान की ।।
अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई । प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई ।।
कछुक दिवस जननी धरु धीरा । कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ।।
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं । तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं ।।
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना । जातुधान अति भट बलवाना ।।
मोरें हृदय परम संदेहा । सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा ।।
कनक भूधराकार सरीरा । समर भयंकर अतिबल बीरा ।।
सीता मन भरोस तब भयऊ । पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ ।।
“अगर रघुवीर (राम) को तुम्हारी सुधि (संदेश) मिल गई होती, तो वे रघुराई (राम) देरी नहीं करते। राम का बाण सूर्य के उदय के समान है, जो राक्षसों के अंधकार को नष्ट कर देता है।”
“हे माता, अभी मैं तुम्हें (यहाँ से) ले जाऊं, लेकिन राम की आज्ञा नहीं है, राम की शपथ। कुछ दिनों तक धैर्य रखो, जननी। रघुवीर (राम) वानरों सहित आएंगे।”
“वे राक्षसों को मारकर तुम्हें ले जाएंगे और तीनों लोकों में नारद आदि ऋषि तुम्हारे यश का गुणगान करेंगे।”
“हे पुत्र, सभी वानर तुम्हारे जैसे हैं, लेकिन राक्षस बहुत बलवान और योद्धा हैं। मेरे हृदय में बहुत संदेह है।”
यह सुनकर हनुमान ने अपनी असली देह प्रकट कर दी। वे सोने के पर्वत के आकार के समान थे, उनके शरीर का रूप भयंकर और अत्यधिक बलवान योद्धा का था।
सीता के मन में तब भरोसा जागा और फिर पवनसुत (हनुमान) ने अपना लघु (छोटा) रूप धारण किया।
दोहा: सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल ।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ।।
।। चौपाई ।।
मन संतोष सुनत कपि बानी । भगति प्रताप तेज बल सानी ।।
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना । होहु तात बल सील निधाना ।।
अजर अमर गुननिधि सुत होहू । करहुँ बहुत रघुनायक छोहू ।।
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना । निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ।।
बार बार नाएसि पद सीसा । बोला बचन जोरि कर कीसा ।।
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता । आसिष तव अमोघ बिख्याता ।।
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा । लागि देखि सुंदर फल रूखा ।।
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी । परम सुभट रजनीचर भारी ।।
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं । जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं ।।
हनुमान की बातें सुनकर सीता का मन संतोष से भर गया, क्योंकि उनकी बातें भक्ति, प्रताप, तेज और बल से सनी हुई थीं।
सीता ने रामप्रिय (हनुमान) को आशीर्वाद दिया, “हे तात, तुम बल और शील (विनम्रता) के भंडार बनो। तुम अजर (न उम्र पाने वाले), अमर (अमरत्व को प्राप्त करने वाले) और गुणों के भंडार होओ।”
“रघुनायक (राम) तुम पर बहुत स्नेह करेंगे। प्रभु कृपा करेंगे, ऐसा सुनकर हनुमान प्रेम में मग्न हो गए। बार-बार सीता के चरणों में सिर झुकाया और हाथ जोड़कर बोले,”
“अब मैं कृतार्थ (संपन्न) हो गया हूँ, माता। तुम्हारा आशीर्वाद अमोघ (अचूक) और प्रसिद्ध है।”
“हे माता, सुनो, मुझे बहुत भूख लगी है। यहाँ सुंदर फल देखकर भूख और बढ़ गई है।”
“हे पुत्र, सुनो, जंगल की रखवाली करने वाले परम सुभट (श्रेष्ठ योद्धा) राक्षस बहुत भारी (शक्तिशाली) हैं।”
“उनका भय मुझ पर नहीं है, हे माता। यदि तुम्हें मन में सुख होता है तो मैं उनसे डरता नहीं हूँ।”
दोहा: देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु ।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ।।
।। चौपाई ।।
चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा । फल खाएसि तरु तोरैं लागा ।।
रहे तहाँ बहु भट रखवारे । कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे ।।
नाथ एक आवा कपि भारी । तेहिं असोक बाटिका उजारी ।।
खाएसि फल अरु बिटप उपारे । रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे ।।
सुनि रावन पठए भट नाना । तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना ।।
सब रजनीचर कपि संघारे । गए पुकारत कछु अधमारे ।।
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा । चला संग लै सुभट अपारा ।।
आवत देखि बिटप गहि तर्जा । ताहि निपाति महाधुनि गर्जा ।।
हनुमान जी सिर झुकाकर अशोक वाटिका में प्रवेश करते हैं। वहाँ वे फल खाते हैं और पेड़ों को तोड़ने लगते हैं।वहाँ कई राक्षस रखवाले थे। हनुमान जी कुछ को मार देते हैं और कुछ भागकर जाकर खबर करते हैं।
हे नाथ, एक बलवान वानर आया है। उसने अशोक वाटिका को उजाड़ दिया है।उसने फल खाए और पेड़ों को उखाड़ दिया। उसने रखवालों को मारकर धरती पर गिरा दिया।
यह सुनकर रावण ने अनेक राक्षस सैनिक भेजे। उन्हें देखकर हनुमान जी गरज उठे।हनुमान जी ने सभी राक्षसों को मार गिराया। कुछ अधमरे होकर जाकर पुकारते हैं।
फिर रावण ने अक्षय कुमार को भेजा। वह अपार बलशाली सैनिकों को साथ लेकर चला।आते देखकर हनुमान जी ने पेड़ पकड़कर उसे धमकाया। उसे मारकर महाध्वनि करते हुए गरजे। इस प्रकार से हनुमान जी ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए रावण की सेना और अक्षय कुमार का संहार किया।
दोहा: कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि ।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि ।।
।। चौपाई ।।
सुनि सुत बध लंकेस रिसाना । पठएसि मेघनाद बलवाना ।।
मारसि जनि सुत बांधेसु ताही । देखिअ कपिहि कहाँ कर आही ।।
चला इंद्रजित अतुलित जोधा । बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ।।
कपि देखा दारुन भट आवा । कटकटाइ गर्जा अरु धावा ।।
अति बिसाल तरु एक उपारा । बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा ।।
रहे महाभट ताके संगा । गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा ।।
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा । भिरे जुगल मानहुँ गजराजा ।
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई । ताहि एक छन मुरुछा आई ।।
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया । जीति न जाइ प्रभंजन जाया ।।
जब रावण ने अपने पुत्र अक्षय कुमार के मारे जाने की खबर सुनी, तो वह बहुत क्रोधित हुआ। उसने अपने बलवान पुत्र मेघनाद (इंद्रजित) को भेजा और आदेश दिया कि वह हनुमान को मारने के बजाय पकड़कर बाँध ले ताकि उसे देखा जा सके कि वह कहाँ से आया है और क्या चाहता है। इंद्रजित, जो एक अद्वितीय योद्धा था, अपने भाई की मृत्यु की खबर सुनकर बहुत क्रोधित हुआ और हनुमान से लड़ने के लिए चल पड़ा।
जब हनुमान ने इंद्रजित को आते देखा, तो वे भीषण गर्जना करते हुए उस पर धावा बोल दिए। हनुमान ने एक विशाल पेड़ उखाड़कर इंद्रजित पर फेंका, जिससे इंद्रजित के सारे हथियार निष्प्रभावी हो गए। इंद्रजित के साथ आए महाबलशाली योद्धाओं को भी हनुमान ने पकड़-पकड़कर मारा और उन्हें धरती पर पटक दिया। फिर हनुमान और इंद्रजित के बीच भीषण युद्ध हुआ, जैसे दो महान हाथियों की लड़ाई हो।
हनुमान ने एक जोरदार मुक्का मारा और फिर एक पेड़ पर चढ़ गए, जिससे इंद्रजित एक क्षण के लिए बेहोश हो गया। जब इंद्रजित फिर से उठा, तो उसने कई मायावी (जादुई) युद्ध कौशल का प्रयोग किया, लेकिन वह पवनपुत्र हनुमान को हरा नहीं सका।
इस प्रकार हनुमान और इंद्रजित के बीच का युद्ध बहुत ही भयानक और अद्भुत था, जिसमें हनुमान जी ने अपनी असीम शक्ति और वीरता का प्रदर्शन किया।
दोहा: ब्रह्म अस्त्र तेहिं साँधा कपि मन कीन्ह बिचार ।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ।।
।। चौपाई ।।
ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहि मारा । परतिहुँ बार कटकु संघारा ।।
तेहि देखा कपि मुरुछित भयऊ । नागपास बाँधेसि लै गयऊ ।।
जासु नाम जपि सुनहु भवानी । भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ।।
तासु दूत कि बंध तरु आवा । प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा ।।
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए । कौतुक लागि सभाँ सब आए ।।
दसमुख सभा दीखि कपि जाई । कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ।।
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता । भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ।।
देखि प्रताप न कपि मन संका । जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ।।
इंद्रजित ने हनुमान को ब्रह्मास्त्र से मारा, जिससे हनुमान मूर्छित हो गए। हनुमान मूर्छित होते ही इंद्रजित ने उन्हें नागपाश से बाँध लिया और रावण के दरबार में ले गया।
हे भवानी, जिस प्रभु के नाम का जप करने से ज्ञानी व्यक्ति संसार के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं, उसी प्रभु के दूत को बाँध कर लाया गया था। यह सब प्रभु राम के कार्य के लिए ही हुआ था कि हनुमान को बाँधा गया।
हनुमान के बंधन की खबर सुनकर सभी राक्षस वहाँ दौड़ पड़े और सभी लोग कौतुक (आश्चर्य) के कारण रावण की सभा में आकर इकट्ठा हो गए।
हनुमान रावण की सभा में पहुँचे, जहाँ रावण का अत्यधिक प्रभुत्व (शक्ति और प्रभाव) था, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सभा में रावण अपनी भृकुटि (भौंहें) तानकर बैठा था, जिससे सभी देवता और दिशाओं के अधिपति (दिशाओं के देवता) भी भयभीत हो गए थे।
हनुमान ने रावण का प्रताप देखा, लेकिन उनके मन में कोई संका (भय) नहीं हुई, जैसे गरुड़ नागों के समूह में भी बिना संका के रहता है।
इस प्रकार, हनुमान ने अपने साहस और दृढ़ता का प्रदर्शन किया, भले ही वह रावण की सभा में बंधे हुए थे। उन्होंने अपने प्रभु राम के प्रति अपनी निष्ठा और विश्वास को बनाए रखा, और किसी भी भय या संदेह का सामना नहीं किया।
दोहा: कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद ।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद ।।
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।। चौपाई ।।
कह लंकेस कवन तैं कीसा । केहिं के बल घालेहि बन खीसा ।।
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही । देखउँ अति असंक सठ तोही ।।
मारे निसिचर केहिं अपराधा । कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा ।।
सुन रावन ब्रह्मांड निकाया । पाइ जासु बल बिरचित माया ।।
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा । पालत सृजत हरत दससीसा ।।
जा बल सीस धरत सहसानन । अंडकोस समेत गिरि कानन ।।
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता । तुम्ह ते सठन्ह सिखावनु दाता ।।
हर कोदंड कठिन जेहि भंजा । तेहि समेत नृप दल मद गंजा ।।
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली । बधे सकल अतुलित बलसाली ।।
रावण ने हनुमान से पूछा, “हे वानर, तुम कौन हो? किसके बल पर तुमने मेरे उद्यान को उजाड़ दिया? क्या तुमने मेरे बारे में नहीं सुना? मैं तुम्हें देखता हूँ और तुम मुझे देखकर भी बिलकुल नहीं डरते, तुम बहुत ही निर्भीक लगते हो। किस अपराध के कारण तुमने मेरे राक्षसों को मारा है? बताओ मूर्ख, तुम्हें अपने प्राणों का भय क्यों नहीं है?”
हनुमान ने रावण की बात सुनी और उत्तर दिया, “हे रावण, सुनो, जिनके बल से यह पूरा ब्रह्मांड बना है, और जिनके बल पर यह माया चल रही है, उन्हीं के बल से मैं यहाँ आया हूँ। जिनके बल से ब्रह्मा, विष्णु और महेश इस संसार को रचते, पालते और संहार करते हैं, उन्हीं के बल पर मैं यहाँ आया हूँ। जिनके बल से शेषनाग इस पृथ्वी को अपने फण पर धारण करते हैं, उन्हीं के बल से मैं यहाँ आया हूँ। वही भगवान विभिन्न रूप धारण करके संसार की रक्षा करते हैं और मूर्खों को सिखाते हैं।
जिन्होंने भगवान राम के धनुष को तोड़ा और जिनके साथ मिलकर राजा के गर्व को तोड़ा, उन्होंने ही खर, दूषण, त्रिशिरा और बाली जैसे अत्यंत शक्तिशाली योद्धाओं का वध किया है। मैं उन्हीं के बल से यहाँ आया हूँ।”
इस प्रकार, हनुमान ने रावण को यह बताने की कोशिश की कि वे भगवान राम के दूत हैं और उन्हीं के बल पर यहाँ आए हैं। उन्होंने रावण को उसके सभी पराक्रमों के बावजूद यह दिखाया कि उनका बल राम के बल के सामने नगण्य है।
दोहा: जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि ।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ।।
।। चौपाई ।।
जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई । सहसबाहु सन परी लराई ।।
समर बालि सन करि जसु पावा । सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा ।।
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा । कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा ।।
सब कें देह परम प्रिय स्वामी । मारहिं मोहि कुमारग गामी ।।
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे । तेहि पर बाँधेउ तनयँ तुम्हारे ।।
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा । कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ।।
बिनती करउँ जोरि कर रावन । सुनहु मान तजि मोर सिखावन ।।
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी । भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी ।।
जाकें डर अति काल डेराई । जो सुर असुर चराचर खाई ।।
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै । मोरे कहें जानकी दीजै ।।
हनुमान जी ने रावण से कहा, “मैं तुम्हारी शक्ति और प्रभुत्व को जानता हूँ। तुम्हारी सहस्रबाहु (हजार भुजाओं वाले राक्षस) के साथ युद्ध हुआ था और तुमने बालि के साथ युद्ध करके भी यश प्राप्त किया था।”
हनुमान के इन शब्दों को सुनकर रावण हँसते हुए बोला। हनुमान ने कहा, “मैं अपने प्रभु के लिए भूखा था, इसलिए फल खाए और वानर के स्वभाव के कारण वृक्षों को तोड़ दिया। सभी को अपने शरीर से अत्यधिक प्रेम होता है, हे स्वामी, जो कुमार्ग पर चलते हैं, वे मुझे मारने आए। जिन्होंने मुझे मारा, मैंने उन्हें मारा। इसके बाद तुम्हारे पुत्र ने मुझे बाँध लिया। मुझे इसमें कोई शर्म नहीं है, क्योंकि मैं अपने प्रभु का कार्य करने आया हूँ।”
हनुमान ने रावण से विनती करते हुए कहा, “हे रावण, मैं हाथ जोड़कर तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरी सलाह सुनो और अपना अभिमान त्याग दो। अपने कुल (वंश) को ध्यान में रखते हुए सोचो और भ्रम त्यागकर उस भगवान की शरण में आओ जो भक्तों के भय को दूर करते हैं।”
हनुमान ने रावण को बताया, “जिससे अति काल (मृत्यु) भी डरता है और जो देवता, असुर और समस्त चराचर जगत का भक्षण करता है, उससे बैर कभी नहीं करना चाहिए। मेरी बात मानकर जानकी (सीता) को लौटा दो।”
इस प्रकार, हनुमान ने रावण को समझाने की कोशिश की कि वह भगवान राम से बैर न करे और सीता को वापस लौटा दे। उन्होंने रावण को उसके अभिमान और भ्रम से मुक्त होने का सुझाव दिया और भगवान राम की शरण में आने की सलाह दी।
दोहा: प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि ।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ।।
।। चौपाई ।।
राम चरन पंकज उर धरहू । लंका अचल राज तुम्ह करहू ।।
रिषि पुलिस्त जसु बिमल मंयका । तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका ।।
राम नाम बिनु गिरा न सोहा । देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ।।
बसन हीन नहिं सोह सुरारी । सब भूषण भूषित बर नारी ।।
राम बिमुख संपति प्रभुताई । जाइ रही पाई बिनु पाई ।।
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं । बरषि गए पुनि तबहिं सुखाहीं ।।
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी । बिमुख राम त्राता नहिं कोपी ।।
संकर सहस बिष्नु अज तोही । सकहिं न राखि राम कर द्रोही ।।
हनुमान जी ने रावण से कहा, “राम के चरण कमलों को अपने हृदय में धारण करो और तुम लंका का अचल (अटल) राज्य प्राप्त करोगे।” उन्होंने कहा कि “हे रावण, तुम अपने पूर्वज ऋषि पुलस्त्य के शुद्ध और पवित्र यश रूपी चंद्रमा में कलंक न बनो।”
हनुमान जी ने आगे कहा, “राम के नाम के बिना वाणी शोभा नहीं देती। इस पर विचार करो और अपना मद (अहंकार) और मोह (भ्रम) त्याग दो। जैसे बिना वस्त्र के स्त्री शोभा नहीं पाती, वैसे ही सभी आभूषणों से सुशोभित स्त्री सुंदर नहीं लगती। राम से विमुख होकर मिली हुई संपत्ति और प्रभुता बिना किसी आधार के चली जाती है।”
उन्होंने समझाया, “जैसे जिन नदियों का मूल स्रोत (उत्स) नहीं होता, वे वर्षा के बाद सूख जाती हैं, वैसे ही राम से विमुख होकर प्राप्त की गई संपत्ति भी स्थायी नहीं रहती।”
हनुमान जी ने रावण से गंभीरता से कहा, “हे दशग्रीव (दस सिर वाले रावण), सुनो, मैं तुम्हें शपथपूर्वक कहता हूँ कि राम से विमुख होकर किसी को भी कोई त्राता (रक्षक) नहीं मिलता।” उन्होंने स्पष्ट किया कि “शंकर (भगवान शिव), विष्णु और ब्रह्मा भी राम के द्रोही (दुश्मन) को नहीं बचा सकते।”
इस प्रकार, हनुमान जी ने रावण को राम के प्रति समर्पित होने की सलाह दी और समझाया कि राम के विरुद्ध जाने पर कोई भी उसे नहीं बचा सकेगा, चाहे वह कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो। उन्होंने रावण को उसके अहंकार और भ्रम से मुक्त होकर राम की शरण में आने का सुझाव दिया।
दोहा: मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान ।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ।।
।। चौपाई ।।
जदपि कहि कपि अति हित बानी । भगति बिबेक बिरति नय सानी ।।
बोला बिहसि महा अभिमानी । मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी ।।
मृत्यु निकट आई खल तोही । लागेसि अधम सिखावन मोही ।।
उलटा होइहि कह हनुमाना । मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना ।।
सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना । बेगि न हरहुँ मूढ़ कर प्राना ।।
सुनत निसाचर मारन धाए । सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए ।।
नाइ सीस करि बिनय बहूता । नीति बिरोध न मारिअ दूता ।।
आन दंड कछु करिअ गोसाँई । सबहीं कहा मंत्र भल भाई ।।
सुनत बिहसि बोला दसकंधर । अंग भंग करि पठइअ बंदर ।।
हनुमान जी ने बहुत ही हितकारी बातें कहीं, जिसमें भक्ति, विवेक, विरक्ति और नीति की बातें शामिल थीं। लेकिन अहंकारी रावण हँसते हुए बोला, “हमसे मिलने के लिए एक बहुत बड़ा ज्ञानी गुरु कपि (वानर) आया है।”
रावण ने आगे कहा, “हे मूर्ख वानर, तुम्हें मुझे सिखाने का साहस कैसे हुआ? मृत्यु तुम्हारे निकट आ गई है और तुम मुझे उपदेश दे रहे हो।” फिर हनुमान ने कहा, “तुम्हारे शब्द उलटे होंगे (तुम्हारी समझ उलटी हो गई है), और तुम्हारी मति भ्रमित हो गई है, यह मैं स्पष्ट देख रहा हूँ।”
हनुमान के वचन सुनकर रावण बहुत क्रोधित हो गया और उसने आदेश दिया, “इस मूर्ख के प्राण तुरंत हर लो।” यह सुनकर राक्षस हनुमान को मारने के लिए दौड़े, लेकिन तभी विभीषण अपने मंत्रियों के साथ आकर बोले, “हे महाराज, दूत को मारना नीति के विरुद्ध है। अन्य कोई दंड दिया जा सकता है।”
विभीषण ने सिर झुकाकर रावण से बहुत विनती की और कहा, “दूत को मारना उचित नहीं है, कोई और दंड दें।” सभी मंत्रियों ने भी विभीषण की बात का समर्थन किया।
यह सुनकर रावण हँसते हुए बोला, “इस वानर के अंग-भंग (हाथ-पैर तोड़कर) कर इसे वापस भेज दो।”
इस प्रकार, हनुमान जी और रावण के बीच की इस बातचीत में हनुमान ने रावण को समझाने की कोशिश की, लेकिन अहंकारी रावण ने उनकी बातों को नहीं माना और उन्हें दंड देने का आदेश दिया।
दोहा: कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ ।।
।। चौपाई ।।
पूँछहीन बानर तहँ जाइहि । तब सठ निज नाथहि लइ आइहि ।।
जिन्ह कै कीन्हसि बहुत बड़ाई । देखेउँûमैं तिन्ह कै प्रभुताई ।।
बचन सुनत कपि मन मुसुकाना । भइ सहाय सारद मैं जाना ।।
जातुधान सुनि रावन बचना । लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना ।।
रहा न नगर बसन घृत तेला । बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला ।।
कौतुक कहँ आए पुरबासी । मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी ।।
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी । नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी ।।
पावक जरत देखि हनुमंता । भयउ परम लघु रुप तुरंता ।।
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं । भई सभीत निसाचर नारीं ।।
रावण ने कहा, “जब यह वानर यहाँ से बिना पूँछ के जाएगा, तब यह मूर्ख अपने स्वामी को यहाँ लाएगा। जिनकी इसने बहुत बड़ाई की है, मैं उन स्वामियों की प्रभुता देखूंगा।”
रावण के ये वचन सुनकर हनुमान जी मन ही मन मुस्कुराए और समझ गए कि सरस्वती (ज्ञान की देवी) उनकी सहायता कर रही हैं।
रावण के आदेश को सुनकर मूर्ख राक्षस उसी प्रकार की योजना बनाने लगे। लंका में कोई वस्त्र, घी या तेल नहीं बचा, क्योंकि हनुमान की पूँछ को लंबा करने के लिए वे सब चीजें उसमें लगाई गईं। हनुमान जी ने इसे खेल की तरह लिया और उनकी पूँछ और लंबी होती गई।
इस कौतुक (खेल) को देखने के लिए नगर के सभी निवासी आए, वे हनुमान को मारने के लिए अपने पैर से मारते और बहुत हँसी करते। ढोल बजाए जा रहे थे और सभी लोग ताली बजा रहे थे।
फिर हनुमान जी को नगर भर में घुमाया गया और उनकी पूँछ में आग लगा दी गई। जब हनुमान ने अपनी पूँछ को जलते देखा, तो वे तुरंत ही अपने आप को बहुत छोटे रूप में परिवर्तित कर लिया।
हनुमान जी ने चुपके से एक स्वर्ण अटारी (महल की छत) पर चढ़कर सभी को डरा दिया। राक्षस महिलाएँ भयभीत हो गईं।
इस प्रकार, हनुमान जी ने अपनी चतुराई और शक्ति का प्रदर्शन किया, जिससे लंका के निवासियों को भयभीत कर दिया।
दोहा: हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास ।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास ।।
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।। चौपाई ।।
देह बिसाल परम हरुआई । मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई ।।
जरइ नगर भा लोग बिहाला । झपट लपट बहु कोटि कराला ।।
तात मातु हा सुनिअ पुकारा । एहि अवसर को हमहि उबारा ।।
हम जो कहा यह कपि नहिं होई । बानर रूप धरें सुर कोई ।।
साधु अवग्या कर फलु ऐसा । जरइ नगर अनाथ कर जैसा ।।
जारा नगरु निमिष एक माहीं । एक बिभीषन कर गृह नाहीं ।।
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा । जरा न सो तेहि कारन गिरिजा ।।
उलटि पलटि लंका सब जारी । कूदि परा पुनि सिंधु मझारी ।।
हनुमान जी ने अपनी विशाल देह को तुरंत ही बहुत छोटा कर लिया और मंदिर से मंदिर की छत पर तेजी से कूदने लगे। उन्होंने लंका के नगर को जलाना शुरू किया, जिससे लोग बहुत परेशान हो गए। अग्नि की लपटें चारों ओर फैल गईं और कोटि (करोड़ों) हाथों की तरह दिखाई देने लगीं।
लोग पुकारने लगे, “हे पिता, हे माता, सुनिए हमारी पुकार! इस समय कौन हमें बचाएगा?” कुछ लोग कहने लगे, “हमने पहले ही कहा था कि यह वानर नहीं हो सकता, यह देवता है जो वानर का रूप धारण किए हुए है।”
कई लोग बोले, “साधु (अच्छे व्यक्ति) का अपमान करने का फल ऐसा ही होता है। हमारा नगर अनाथ की तरह जल रहा है।” हनुमान जी ने कुछ ही समय में पूरे नगर को जला दिया, सिर्फ विभीषण का घर छोड़कर।
हनुमान जी ने यह कार्य उसी अग्नि के कारण किया था जिसे उन्होंने सिरजा (उत्पन्न) किया था। उनके कारण ही नगर नहीं जला था। गिरिजा (पार्वती) को यह बात स्पष्ट थी।
हनुमान जी ने लंका को उलट-पलट कर पूरी तरह जला दिया और फिर समुद्र में कूद गए।
इस प्रकार, हनुमान जी ने अपनी बुद्धि और शक्ति का उपयोग करके लंका को जलाया और राक्षसों को उनकी करनी का फल भुगतने पर मजबूर किया।
दोहा: पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि ।
जनकसुता के आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि ।।
।। चौपाई ।।
मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा । जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ।।
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ । हरष समेत पवनसुत लयऊ ।।
कहेहु तात अस मोर प्रनामा । सब प्रकार प्रभु पूरनकामा ।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी । हरहु नाथ मम संकट भारी ।।
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु । बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु ।।
मास दिवस महुँ नाथु न आवा । तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा ।।
कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना । तुम्हहू तात कहत अब जाना ।।
तोहि देखि सीतलि भइ छाती । पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती ।।
हनुमान जी ने सीता माता से कहा, “हे माता, मुझे कुछ ऐसा चिन्ह दीजिए, जैसा रघुनायक (भगवान राम) ने मुझे दिया था (अंगूठी)।”
तब सीता माता ने अपनी चूड़ामणि (माथे का आभूषण) उतारकर दी और हर्ष (खुशी) के साथ पवनसुत (हनुमान जी) ने उसे लिया।
सीता माता ने कहा, “हे तात (हनुमान), मेरा प्रणाम कहिएगा। हमारे प्रभु (राम) सभी प्रकार से पूर्णकाम (सभी इच्छाओं को पूरा करने वाले) हैं।”
सीता माता ने आगे कहा, “हे दीनदयाल (दीनों पर दया करने वाले), अपनी प्रसिद्धि (बिरुद) को ध्यान में रखकर, हे नाथ, मेरी इस भारी संकट को हर लें।”
सीता माता ने हनुमान जी को बताया, “हे तात, इंद्र के पुत्र (जयंत) की कथा सुनाकर प्रभु को समझाना और उनके बाण (धनुष-बाण) के प्रताप को बताना। यदि मास (महीने) के अंत तक प्रभु (राम) नहीं आए, तो मैं जीवित नहीं रह पाऊँगी।”
सीता माता ने हनुमान जी से पूछा, “हे कपि, तुम मुझे किस प्रकार प्राणों को बचाए रख सकते हो? तुम भी अब जा रहे हो।”
फिर सीता माता ने कहा, “तुम्हें देखकर मेरी छाती ठंडी (शांत) हुई थी। अब पुनः वही दिन और वही रातें (कठिन समय) मेरे लिए आने वाली हैं।”
इस प्रकार, हनुमान जी ने सीता माता से उनके लिए एक चिन्ह माँगा और उन्होंने अपनी चूड़ामणि दी। सीता माता ने अपने दुख और राम के आने की आशा को व्यक्त किया, साथ ही हनुमान जी से राम के पास अपने संदेश को पहुँचाने की प्रार्थना की।
दोहा: जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह ।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह ।।
।। चौपाई ।।
चलत महाधुनि गर्जेसि भारी । गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी ।।
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा । सबद किलकिला कपिन्ह सुनावा ।।
हरषे सब बिलोकि हनुमाना । नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ।।
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा । कीन्हेसि रामचन्द्र कर काजा ।।
मिले सकल अति भए सुखारी । तलफत मीन पाव जिमि बारी ।।
चले हरषि रघुनायक पासा । पूँछत कहत नवल इतिहासा ।।
तब मधुबन भीतर सब आए । अंगद संमत मधु फल खाए ।।
रखवारे जब बरजन लागे । मुष्टि प्रहार हनत सब भागे ।।
हनुमान जी जब समुद्र पार करके लंका से वापस लौटे, तो उनके गर्जन की ध्वनि इतनी भयंकर थी कि उसे सुनकर राक्षसों की पत्नियाँ भय से गर्भपात करने लगीं। हनुमान जी ने समुद्र को लांघकर वापस आते ही जोर से आवाज़ लगाई, जिससे सभी वानरों को उनके आने की खबर मिली। हनुमान जी को देखकर सभी वानर अत्यंत हर्षित हो गए और उन्होंने इसे हनुमान जी का नया जन्म माना। हनुमान जी का मुख प्रसन्न था और उनके शरीर से तेज प्रकट हो रहा था, क्योंकि उन्होंने भगवान राम का कार्य सफलतापूर्वक पूरा किया था।
हनुमान जी जब सभी वानरों से मिले, तो सभी अत्यंत सुखी हो गए, जैसे जल मिलने पर मछलियाँ हर्षित हो जाती हैं। फिर सभी वानर हर्षित होकर भगवान राम के पास चले और नवीन घटनाओं की चर्चा करते हुए अपनी यात्रा का वर्णन किया। इसके बाद वे सभी मधुबन में गए, जहाँ अंगद के आदेश से सबने मधुर फल खाए। जब मधुबन के रखवाले उन्हें रोकने लगे, तो वानरों ने उन पर मुष्टि प्रहार किया और सभी रखवाले भाग गए।
इस प्रकार, हनुमान जी ने लंका से लौटकर वानरों को खुशी से भर दिया और सबने मिलकर मधुबन में आनंद मनाया।
दोहा: जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज ।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ।।
।। चौपाई ।।
जौं न होति सीता सुधि पाई । मधुबन के फल सकहिं कि खाई ।।
एहि बिधि मन बिचार कर राजा । आइ गए कपि सहित समाजा ।।
आइ सबन्हि नावा पद सीसा । मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा ।।
पूँछी कुसल कुसल पद देखी । राम कृपाँ भा काजु बिसेषी ।।
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना । राखे सकल कपिन्ह के प्राना ।।
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ । कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ ।।
राम कपिन्ह जब आवत देखा । किएँ काजु मन हरष बिसेषा ।।
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई । परे सकल कपि चरनन्हि जाई ।।
हनुमान जी ने सोचा कि यदि उन्होंने सीता माता की खबर न पाई होती, तो क्या वानर मधुबन के फल खा सकते थे? इसी विचार के साथ राजा सुग्रीव वानरों के साथ आए। सभी वानरों ने आकर राम के चरणों में अपना सिर नवाया और प्रेमपूर्वक उनसे मिले। राम ने उनकी कुशलता पूछी और उनके चरण देखकर सबकी कुशलता की पुष्टि की। उन्होंने कहा कि भगवान राम की कृपा से विशेष कार्य पूरा हो गया है।
सुग्रीव ने कहा कि हनुमान ने यह कार्य किया और सभी वानरों की प्राणों की रक्षा की। यह सुनकर सुग्रीव ने हनुमान को गले लगाया और फिर सभी वानरों के साथ भगवान राम के पास चले। जब राम ने वानरों को आते देखा, तो उन्होंने मन ही मन यह सोचा कि काम सफल हुआ है और हर्षित हुए। राम और लक्ष्मण दोनों भाई फटिक शिला पर बैठे थे, और सभी वानर उनके चरणों में गिर पड़े।
इस प्रकार, हनुमान जी ने सीता माता की खबर लाकर वानरों को मधुबन में आनंद से फल खाने का अवसर दिया और सभी वानर भगवान राम के पास पहुंचे, जहां उन्होंने उनके चरणों में गिरकर अपनी भक्ति प्रकट की।
दोहा: प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज ।
पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ।।
।। चौपाई ।।
जामवंत कह सुनु रघुराया । जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया ।।
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर । सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर ।।
सोइ बिजई बिनई गुन सागर । तासु सुजसु त्रेलोक उजागर ।।
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू । जन्म हमार सुफल भा आजू ।।
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी । सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी ।।
पवनतनय के चरित सुहाए । जामवंत रघुपतिहि सुनाए ।।
सुनत कृपानिधि मन अति भाए । पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए ।।
कहहु तात केहि भाँति जानकी । रहति करति रच्छा स्वप्रान की ।।
जामवंत ने भगवान राम से कहा, “हे रघुराज, जिसे आप अपनी कृपा दृष्टि प्रदान करते हैं, वह व्यक्ति सदा सुखी और निरंतर कुशल रहता है। उस पर देवता, मनुष्य और मुनि सभी प्रसन्न रहते हैं। वही व्यक्ति विजय, विनय और गुणों का सागर होता है, और उसका यश तीनों लोकों में फैलता है। प्रभु की कृपा से सब कार्य सफल हो गए हैं और हमारा जन्म आज सफल हो गया है।”
जामवंत ने आगे कहा, “नाथ, पवनसुत (हनुमान) ने जो कार्य किया है, उसे सहस्रों मुख से भी वर्णित नहीं किया जा सकता। पवनपुत्र के सुन्दर चरित्र को मैं आपके सामने सुनाता हूँ।” जामवंत ने हनुमान के कार्यों का वर्णन भगवान राम को सुनाया, जिसे सुनकर कृपालु भगवान राम का मन अत्यंत प्रसन्न हो गया। फिर भगवान राम ने हर्षित होकर हनुमान को ह्रदय से लगा लिया।
फिर उन्होंने हनुमान से पूछा, “हे तात, बताओ कि जानकी (सीता) किस प्रकार रहती हैं और अपने प्राणों की रक्षा कैसे करती हैं?”
इस प्रकार, जामवंत ने भगवान राम को हनुमान जी की प्रशंसा की और भगवान राम ने हनुमान से सीता माता की कुशलता के बारे में पूछा।
दोहा: नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट ।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ।।
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।। चौपाई ।।
चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही । रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही ।।
नाथ जुगल लोचन भरि बारी । बचन कहे कछु जनककुमारी ।।
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना । दीन बंधु प्रनतारति हरना ।।
मन क्रम बचन चरन अनुरागी । केहि अपराध नाथ हौं त्यागी ।।
अवगुन एक मोर मैं माना । बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना ।।
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा । निसरत प्रान करिहिं हठि बाधा ।।
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा । स्वास जरइ छन माहिं सरीरा ।।
नयन स्त्रवहि जलु निज हित लागी । जरैं न पाव देह बिरहागी ।।
सीता के अति बिपति बिसाला । बिनहिं कहें भलि दीनदयाला ।।
हनुमान जी ने बताया कि चलते समय सीता माता ने मुझे यह चूड़ामणि दी थी, जिसे मैंने रघुनाथ जी को हृदय से लगा लिया। सीता माता ने अपने दोनों नेत्रों को आंसुओं से भरकर कुछ वचन कहे थे। उन्होंने कहा, “हे प्रभु, अपने छोटे भाई सहित आपने मेरे चरण पकड़कर मुझे शरण दी है। आप दीनों के बंधु और शरणागतों के दुःख हरने वाले हैं। मैं मन, वचन और कर्म से आपके चरणों की अनुरागी हूँ। फिर किस अपराध के कारण आपने मुझे त्याग दिया? मेरा एक ही अवगुण है, जिसे मैं मानती हूँ कि आपके वियोग में प्राण नहीं त्याग सकी।
हे नाथ, इसमें मेरे नेत्रों का क्या अपराध है कि वे प्राणों को रोककर रखते हैं। वियोग की अग्नि में मेरा शरीर तिनके की तरह जल रहा है और मेरी सांसें हवा की तरह उस आग को भड़का रही हैं, जिससे क्षणभर में ही शरीर जल जाता है।
मेरे नेत्र अपने ही हित के लिए जल बरसाते हैं, जिससे वियोग का अग्नि में शरीर नहीं जल पाता। सीता की यह अत्यंत बड़ी विपत्ति है, जिसे बिना कहे ही दीनदयालु समझ सकते हैं।”
इस प्रकार, हनुमान जी ने सीता माता की दी हुई चूड़ामणि और उनके संदेश को भगवान राम को दिया, जिससे उनकी व्यथा और प्रेम की गहराई प्रकट होती है।
दोहा: निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति ।
बेगि चलिय प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ।।
।। चौपाई ।।
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना । भरि आए जल राजिव नयना ।।
बचन काँय मन मम गति जाही । सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही ।।
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई । जब तव सुमिरन भजन न होई ।।
केतिक बात प्रभु जातुधान की । रिपुहि जीति आनिबी जानकी ।।
सुनु कपि तोहि समान उपकारी । नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ।।
प्रति उपकार करौं का तोरा । सनमुख होइ न सकत मन मोरा ।।
सुनु सुत उरिन मैं नाहीं । देखेउँ करि बिचार मन माहीं ।।
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता । लोचन नीर पुलक अति गाता ।।
भगवान राम, जो सुख के आधार हैं, जब सीता माता के दुखों को सुनते हैं, तो उनके कमल जैसे नेत्रों में आंसू भर आते हैं। वे सोचते हैं कि उनके लिए वचन, शरीर और मन की गति कहाँ जा रही है। क्या सीता की इस विपत्ति को स्वप्न में भी बूझ सकते हैं? हनुमान जी कहते हैं कि, “हे प्रभु, वास्तविक विपत्ति तब होती है जब आपके स्मरण और भजन में विघ्न हो।”
हनुमान जी कहते हैं कि “राक्षसों की बात ही क्या है, मैं शत्रु को जीतकर जानकी को ले आऊँगा।” भगवान राम सुनकर कहते हैं, “हे कपि (हनुमान), तुम्हारे समान उपकारी न तो देवता, न मनुष्य, न ही मुनि हैं। तुम्हारे उपकार का मैं क्या प्रतिकार करूँ? मेरा मन तुम्हारे सामने नहीं हो सकता।”
भगवान राम ने आगे कहा, “हे पुत्र, मैं तुम्हारा ऋणी नहीं हूँ। मैंने मन में विचार कर यह समझा है।” भगवान राम बार-बार हनुमान को देखते हैं और उनके नेत्रों से आंसू बहते हैं तथा उनका शरीर पुलकित हो जाता है।
इस प्रकार, भगवान राम ने सीता माता की पीड़ा सुनकर अपने नेत्रों में आंसू भर लिए और हनुमान जी की महानता की प्रशंसा करते हुए स्वयं को उनका ऋणी बताया। उन्होंने हनुमान की भक्ति और सेवा की सराहना की और अपनी गहरी भावनाएँ प्रकट कीं।
दोहा: सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत ।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ।।
।। चौपाई ।।
बार बार प्रभु चहइ उठावा । प्रेम मगन तेहि उठब न भावा ।।
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा । सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ।।
सावधान मन करि पुनि संकर । लागे कहन कथा अति सुंदर ।।
कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा । कर गहि परम निकट बैठावा ।।
कहु कपि रावन पालित लंका । केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ।।
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना । बोला बचन बिगत अभिमाना ।।
साखामृग के बड़ि मनुसाई । साखा तें साखा पर जाई ।।
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा । निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा ।।
सो सब तव प्रताप रघुराई । नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ।।
भगवान राम बार-बार हनुमान जी को उठाना चाहते थे, लेकिन प्रेम में मग्न हनुमान जी को उठना अच्छा नहीं लग रहा था। प्रभु ने हनुमान के सिर पर अपने कमल जैसे हाथ रखा, और शिवजी उस स्थिति को स्मरण कर मग्न हो गए। फिर शिवजी ने सावधान होकर अत्यंत सुंदर कथा सुनानी शुरू की।
भगवान राम ने हनुमान को उठाकर अपने ह्रदय से लगा लिया और अपने पास बिठा लिया। उन्होंने पूछा, “हे कपि, रावण द्वारा संरक्षित लंका को तुमने किस प्रकार जलाया, जो कि एक बहुत ही सुरक्षित दुर्ग था?” भगवान राम की प्रसन्नता जानकर हनुमान ने अभिमान रहित वचनों में उत्तर दिया।
हनुमान ने कहा, “साखामृग (वानर) का स्वभाव है कि वह एक शाखा से दूसरी शाखा पर जाता है। मैंने समुद्र को लांघकर सोने की लंका को जलाया और राक्षसों के बगीचे को नष्ट किया। यह सब आपके प्रताप से संभव हुआ है, हे रघुराई। इसमें मेरी कोई प्रभुता नहीं है।”
हनुमान जी ने कहा कि जिस पर आपकी अनुकंपा होती है, उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है। तब भगवान राम ने कहा कि आपके प्रभाव से, हे हनुमान, बड़े से बड़े अग्नि भी तिनके को जला सकती है।
दोहा: ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकुल ।
तब प्रभावँ बड़वानलहिं जारि सकइ खलु तूल ।।
।। चौपाई ।।
नाथ भगति अति सुखदायनी । देहु कृपा करि अनपायनी ।।
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी । एवमस्तु तब कहेउ भवानी ।।
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना । ताहि भजनु तजि भाव न आना ।।
यह संवाद जासु उर आवा । रघुपति चरन भगति सोइ पावा ।।
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा । जय जय जय कृपाल सुखकंदा ।।
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा । कहा चलैं कर करहु बनावा ।।
अब बिलंबु केहि कारन कीजे । तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे ।।
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी । नभ तें भवन चले सुर हरषी ।।
हनुमान जी भगवान राम से प्रार्थना करते हैं, “हे नाथ, आपकी भक्ति अत्यंत सुख देने वाली है। कृपा करके मुझे यह अविनाशी भक्ति दें।” भगवान राम ने हनुमान की अत्यंत सरल और सच्ची वाणी सुनकर, प्रसन्न होकर उन्हें “एवमस्तु” कहकर आशीर्वाद दिया। इस पर शिव जी, जो यह सब देख रहे थे, कहते हैं, “उमा, जिसने राम के स्वभाव को जान लिया, उसके मन में अन्य कोई भाव नहीं आता।”
जिसके हृदय में यह संवाद आ जाता है, वह राम के चरणों की भक्ति प्राप्त कर लेता है। प्रभु के वचनों को सुनकर वानर समूह ने जय-जयकार करते हुए कहा, “जय-जय, हे कृपालु सुखकंदा।” तब भगवान राम ने वानरराज सुग्रीव को बुलाकर कहा, “चलने की तैयारी करो और सभी वानरों को तुरंत आदेश दो। अब विलंब किस कारण किया जाए?”
यह अद्भुत दृश्य देखकर आकाश से देवताओं ने बहुत सारे पुष्प बरसाए और वे अपने अपने भवनों को प्रसन्न होकर लौट गए।
इस प्रकार, भगवान राम ने हनुमान जी को अविनाशी भक्ति का वरदान दिया और वानर सेना को युद्ध की तैयारी करने का आदेश दिया, जिससे देवताओं ने प्रसन्न होकर पुष्पवर्षा की।
दोहा: कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ।।
।। चौपाई ।।
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा । गरजहिं भालु महाबल कीसा ।।
देखी राम सकल कपि सेना । चितइ कृपा करि राजिव नैना ।।
राम कृपा बल पाइ कपिंदा । भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा ।।
हरषि राम तब कीन्ह पयाना । सगुन भए सुंदर सुभ नाना ।।
जासु सकल मंगलमय कीती । तासु पयान सगुन यह नीती ।।
प्रभु पयान जाना बैदेहीं । फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं ।।
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई । असगुन भयउ रावनहि सोई ।।
चला कटकु को बरनैं पारा । गर्जहि बानर भालु अपारा ।।
नख आयुध गिरि पादपधारी । चले गगन महि इच्छाचारी ।।
केहरिनाद भालु कपि करहीं । डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं ।।
भगवान राम के चरणों में अपना सिर नवाते हुए, महाबली वानर और भालू गर्जना करने लगे। भगवान राम ने अपनी पूरी वानर सेना को देखा और अपने कमल के नेत्रों से उन पर कृपा दृष्टि डाली। राम की कृपा का बल पाकर वानरराज (सुग्रीव) सहित सभी वानर पर्वतों के समान शक्तिशाली हो गए।
भगवान राम ने हर्षित होकर यात्रा की तैयारी की और कई सुंदर और शुभ शकुन होने लगे। जिनकी कीर्ति सम्पूर्ण मंगलमयी है, उनके पयाना (यात्रा) के समय शकुन होना स्वाभाविक है। भगवान राम के पयाना का संकेत जानकी (सीता) ने भी पाया, उनके बाएँ अंग फड़कने लगे जैसे कोई शुभ समाचार कह रहा हो।
सीता जी के लिए जो भी शकुन हुए, वे शुभ थे, जबकि रावण के लिए वे अशुभ थे। वानर और भालू की अनगिनत सेना को वर्णन करने में कोई भी समर्थ नहीं है। वे गर्जना कर रहे थे, और उनके पास नख (नाखून), आयुध (हथियार), पर्वत और वृक्ष थे। वे आकाश और धरती पर इच्छानुसार चलते थे।
भालू और वानर के सिंहनाद से दिशाओं के हाथी घबरा गए और गगन (आकाश) तथा पृथ्वी डगमगाने लगी।
इस प्रकार, भगवान राम की सेना ने युद्ध की तैयारी की और उनकी यात्रा के समय शुभ शकुन हुए, जिससे सीता जी को शुभ समाचार का आभास हुआ और रावण के लिए अशुभ संकेत मिले।
।। छंद ।।
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे ।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किन्नर दुख टरे ।।
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं ।।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ।।
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई ।।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई ।।
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी ।।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी ।।
भयंकर गर्जना कर रहे दिशाओं के हाथी डर से चिल्ला रहे थे, धरती डोल रही थी, पर्वत हिल रहे थे, और समुद्र खलबला रहा था। इस दृश्य को देखकर गंधर्व, देवता, मुनि, नाग और किन्नर सभी के मन में हर्ष उत्पन्न हो गया और उनके सारे दुःख दूर हो गए।
भयंकर और विशाल वानर योद्धा करोड़ों की संख्या में युद्ध के लिए दौड़ रहे थे। वे जय-जयकार कर रहे थे और कोसलनाथ (भगवान राम) के प्रबल प्रताप और गुणों का गायन कर रहे थे।
धरती के राजा शेषनाग इस भार को सहन नहीं कर पा रहे थे और बार-बार मूर्छित हो रहे थे। वे पुनः अपनी कठोर पीठ को दांतों से पकड़ रहे थे, लेकिन वह पीठ इस भार को सहन नहीं कर पा रही थी।
भगवान राम के सुन्दर यात्रा की तैयारी और उनकी सेना की प्रस्थान को देखकर ऐसा लगता था जैसे शेषनाग की कठोर पीठ पर अटल और पवित्र लेखनी से लिखा जा रहा हो।
इस प्रकार, भगवान राम की सेना के प्रस्थान से उत्पन्न वातावरण और देवताओं के हर्ष का वर्णन किया गया है, जिसमें धरती, पर्वत और समुद्र की स्थिति, वानरों की गर्जना और शेषनाग की कठिनाई को प्रस्तुत किया गया है।
दोहा: एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर ।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ।।
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।। चौपाई ।।
उहाँ निसाचर रहहिं ससंका । जब ते जारि गयउ कपि लंका ।।
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा । नहिं निसिचर कुल केर उबारा ।।
जासु दूत बल बरनि न जाई । तेहि आएँ पुर कवन भलाई ।।
दूतन्हि सन सुनि पुरजन बानी । मंदोदरी अधिक अकुलानी ।।
रहसि जोरि कर पति पग लागी । बोली बचन नीति रस पागी ।।
कंत करष हरि सन परिहरहू । मोर कहा अति हित हियँ धरहु ।।
समुझत जासु दूत कइ करनी । स्त्रवहीं गर्भ रजनीचर धरनी ।।
तासु नारि निज सचिव बोलाई । पठवहु कंत जो चहहु भलाई ।।
तब कुल कमल बिपिन दुखदाई । सीता सीत निसा सम आई ।।
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें । हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें ।।
लंका जलाने के बाद से राक्षसों में भय व्याप्त हो गया था। प्रत्येक अपने घर में विचार कर रहा था कि राक्षस कुल का उधार नहीं हो सकता। जब उस दूत (हनुमान) के बल का वर्णन नहीं किया जा सकता, तो उसके स्वामी (राम) के आने पर लंका का क्या होगा?
दूतों से नगरवासियों की बातें सुनकर रावण की पत्नी मंदोदरी अत्यंत व्याकुल हो गईं। उन्होंने हाथ जोड़कर अपने पति के चरणों में गिरते हुए, नीति से भरे वचनों में कहा, “हे स्वामी, हरि (राम) के साथ संघर्ष छोड़ दें। मेरे कहे हुए हितकारी वचन को हृदय में धारण करें। जिस दूत के कार्य को समझने से राक्षसों की गर्भवती स्त्रियाँ गर्भपात कर देती हैं, उसकी पत्नी (सीता) को लौटाने के लिए अपने मंत्रियों से कहकर भेजें। यदि आप भलाई चाहते हैं, तो ऐसा करें।”
फिर, राक्षस कुल के लिए दुखदायी, सीता माता की तरह, ठंडी रात की तरह कष्टकारी, आ गई है। “हे स्वामी, सीता को बिना लौटाए आपका कल्याण नहीं हो सकता, जैसे शिव और ब्रह्मा ने कहा है।”
इस प्रकार, मंदोदरी ने रावण को राम के साथ संघर्ष छोड़ने और सीता को लौटाने की सलाह दी, ताकि राक्षस कुल का उधार हो सके और रावण का कल्याण हो सके।
जय सियाराम जय जय सियाराम ।।
जय सियाराम जय जय सियाराम ।।
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sunder kand FAQ
- क्या हम रात में सुंदरकांड का जाप कर सकते हैं?
हाँ, आप रात में सुंदरकांड का जाप कर सकते हैं। धार्मिक ग्रंथों में सुंदरकांड के पाठ के लिए कोई विशिष्ट समय निर्धारित नहीं है, और इसे किसी भी समय किया जा सकता है, बशर्ते कि आप शांति और ध्यानपूर्वक पाठ कर सकें।
- सुंदरकांड की कौन सी चौपाई को शुरू करना होता है?
सुंदरकांड का पाठ किसी भी चौपाई से आरंभ किया जा सकता है, लेकिन प्रायः सुंदरकांड का पाठ हनुमान जी की स्तुति के साथ प्रारंभ किया जाता है।
- घर में सुंदरकांड कराने से क्या होता है?
घर में सुंदरकांड का पाठ कराने से अनेक आध्यात्मिक, मानसिक और भौतिक लाभ होते हैं।
- 1 माला जप का अर्थ है कितनी बार?
1 माला जप का अर्थ है 108 बार मंत्र का जाप करना। सामान्यतः, एक माला में 108 मनके (बीड्स) होते हैं, और हर मनका पर एक बार मंत्र का उच्चारण किया जाता है।
- 21 दिनों तक सुंदरकांड पढ़ने के क्या फायदे हैं?
दि इसे 21 दिनों तक नियमित रूप से पढ़ा जाए, तो इसके अनेक आध्यात्मिक, मानसिक, और भौतिक लाभ हो सकते हैं।
- क्या महिलाओं को सुंदरकांड का पाठ करना चाहिए?
हां, महिलाएं सुंदरकांड का पाठ कर सकती हैं। धार्मिक दृष्टिकोण से, सुंदरकांड का पाठ करने में महिलाओं के लिए कोई निषेध नहीं है।
- सुंदरकांड शाम को कितने बजे पढ़ना चाहिए?
सुंदरकांड का पाठ शाम के समय 4 बजे के बाद करना उचित माना जाता है
- सुंदरकांड का पाठ कितने दिन तक करना चाहिए?
भक्त इसे एक दिन, तीन दिन, सात दिन, 11 दिन, 21 दिन या 41 दिन तक करते हैं। सामान्यतः, 11 दिन तक सुंदरकांड का पाठ करना शुभ माना जाता है
सुंदरकांड यूट्यूब वीडियो
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